दुर्गा पूजा आमतौर पर हाफ इयरली एग्जाम के बाद होती थी। 10-15 दिन की घिसाई के बाद जब दुर्गा पूजा की छुट्टी होती थी तो मज़ा सा आ जाता था। आखिरी एग्जाम भले ही कितना भी गोबर गया हो लेकिन उसके बाद सबके चेहरे पर एक ही भाव रहता था "चलो ख़त्म तो हुआ" . उस दिन स्कूल से घर वापस आते वक़्त हमारी एटलस साइकिल अनायास ही कॉलोनी के उन दुर्गा पूजा पंडालों की तरफ मुद जाती थी जो अभी बन ही रहे होते थे। पंडाल पर पहुंचते ही सबके अंदर का शेरलॉक बाहर आने लगता था। कोई कहता विश्वनाथ मंदिर है, कोई कहता वाइट हाउस है लेकिन बनने के बाद वो कुछ और ही निकलता था। वो समय कुछ और ही था , मुझे तो लगता है उस समय की हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सी ओ 2 का परसेंटेज भी कुछ और ही था। त्यौहार सही मायने में खुशियां लाते थे , अभी तो बिग बिलियन और फेस्टिव सीजन सेल लाते है। तब किसी को तकलीफ नहीं होती थी अगर दिन भर लाउडस्पीकर पर भक्ति गाने बजे तो , तब तो भक्त होना भी अच्छा माना जाता था। पोलिटिकल डिबेट सिर्फ पान की गुमटी या नुक्कड़ की जनरल मर्चेंट की दूकान तक ही सीमित रहती थी और वैचारिक मतभेद हो...