दुर्गा पूजा आमतौर पर हाफ इयरली एग्जाम के बाद होती थी। 10-15 दिन की घिसाई के बाद जब दुर्गा पूजा की छुट्टी होती थी तो मज़ा सा आ जाता था। आखिरी एग्जाम भले ही कितना भी गोबर गया हो लेकिन उसके बाद सबके चेहरे पर एक ही भाव रहता था "चलो ख़त्म तो हुआ" . उस दिन स्कूल से घर वापस आते वक़्त हमारी एटलस साइकिल अनायास ही कॉलोनी के उन दुर्गा पूजा पंडालों की तरफ मुद जाती थी जो अभी बन ही रहे होते थे। पंडाल पर पहुंचते ही सबके अंदर का शेरलॉक बाहर आने लगता था। कोई कहता विश्वनाथ मंदिर है, कोई कहता वाइट हाउस है लेकिन बनने के बाद वो कुछ और ही निकलता था।
वो समय कुछ और ही था , मुझे तो लगता है उस समय की हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सी ओ 2 का परसेंटेज भी कुछ और ही था। त्यौहार सही मायने में खुशियां लाते थे , अभी तो बिग बिलियन और फेस्टिव सीजन सेल लाते है। तब किसी को तकलीफ नहीं होती थी अगर दिन भर लाउडस्पीकर पर भक्ति गाने बजे तो , तब तो भक्त होना भी अच्छा माना जाता था। पोलिटिकल डिबेट सिर्फ पान की गुमटी या नुक्कड़ की जनरल मर्चेंट की दूकान तक ही सीमित रहती थी और वैचारिक मतभेद होने पर लोग एक दूसरे को गालियां निकलना चालू नहीं कर देते थे। खैर......
हाँ तो एग्जाम के बाद सिर्फ दुर्गा पूजा का ही क्रेज नहीं रहता था , राम लीला नाम की भी एक चीज हुआ करती थी। हर कॉलोनी के एक मैदान में दशेहरा के 10-15 दिन पहले से यह कार्यक्रम चालू हो जाता था। नाटक मण्डली में लड़कियां नहीं होती थी तो सीता, मंदोदरी , कौशल्या , कैकेयी सबका रोल एक ही लड़का अलग अलग सारी और मेक उप के साथ करता था। उसी बन्दे की सबसे ज्यादा मौज ली जाती थी। लोग तो उसको बैकस्टेज बीड़ी भी नहीं पीने देते थे। लड़के तो इतने हरामी थे की जब हनुमान जी का लंका जलाने वाला सीन आता था तो उनकी जलती हुई पूंछ खींच के भाग जाते थे। मैदान की बाउंड्री पर बैठ कर हाथ में चुरमुरा लिए ये सब देखने का जो अनुभव था वो अभी भी इस हफ्ते किसी दिन एक्स्ट्रा ड्यूटी करते हुए याद आ जाता है । खैर....
षष्ठी के दिन मूर्ति स्थापना के बाद हर दिन दुर्गा पूजा पंडाल में कुछ ना कुछ इवेंट होते ही रहता था। मेरा फेवरेट था आरती कम्पटीशन जिसमे लड़के लड़कियां जलती हुई आरती के साथ मूर्ति के सामने डांस करते है। कुछ लोग तो इतना खतरनाक डांस करते थे की माँ दुर्गा की नज़र भी महिषासुर से हट कर उन पर चली जाती थी। दुर्गा पूजा का एक अलग ही संगीत होता है जो धाक (शायद यही नाम था ) नामक यन्त्र से उत्पन्न होता है। यह ज्यादातर एक ही रिदम में बजाया जाता है पर आप उस से कभी भी बोर नहीं हो सकते।
पंडाल में घूमना अपनी क्रश को लेजिटिमट तरीके से लाइन मारने की भी जगह हो जाती थी। और जिनकी क्रश नहीं होती थी वो सजी धजी बंगाली लड़कियों को देख कर ही खुश हो जाते थे। बंगाली लड़कियों का उस हफ्ते अलग रूप नज़र आता है, जैसे की किसी प्लास्टिक सर्जन ने डिस्काउंट दे कर सबको ही अत्यंत खूबसूरत बना दिया हो। खैर.....
दिन बीतते बीतते दशमी का दिन आता है जो की बिटरस्वीट अनुभव की परिकाष्ठा वाला दिन है। एक तरफ रावण के जलने का रोमांच होता था , वही दूसरे तरफ माँ दुर्गा के विसर्जन का गम। राम लीला मैदान को शाम से ही लोग भरना चालू कर देते थे। राम रावण का आखिरी युद्ध चालू हो जाता था पर वो तब तक अंत नहीं होता था जब तक चीफ गेस्ट ना आ जाए। चीफ गेस्ट के आते ही विभीषण सक्रिय हो जाता था और चुपके से राम जी के कान में रावण की मृत्यु का राज बता देता था और उसके बाद राम जी तीर मारते हैं जिसे रावण खुद ही अपनी नाभि में घुसा लेता था। इस हास्यास्पद घटना क्रम के बाद कोई अचानक से रावण के पुतले में आग लगा देता था और दशेहरा का आनंद भी उस रावण के साथ ही भष्म हो जाता था।
वो कहते हैं ना कि उस समय की बात ही कुछ और थी,
सही कहते हैं।
वो समय कुछ और ही था , मुझे तो लगता है उस समय की हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सी ओ 2 का परसेंटेज भी कुछ और ही था। त्यौहार सही मायने में खुशियां लाते थे , अभी तो बिग बिलियन और फेस्टिव सीजन सेल लाते है। तब किसी को तकलीफ नहीं होती थी अगर दिन भर लाउडस्पीकर पर भक्ति गाने बजे तो , तब तो भक्त होना भी अच्छा माना जाता था। पोलिटिकल डिबेट सिर्फ पान की गुमटी या नुक्कड़ की जनरल मर्चेंट की दूकान तक ही सीमित रहती थी और वैचारिक मतभेद होने पर लोग एक दूसरे को गालियां निकलना चालू नहीं कर देते थे। खैर......
हाँ तो एग्जाम के बाद सिर्फ दुर्गा पूजा का ही क्रेज नहीं रहता था , राम लीला नाम की भी एक चीज हुआ करती थी। हर कॉलोनी के एक मैदान में दशेहरा के 10-15 दिन पहले से यह कार्यक्रम चालू हो जाता था। नाटक मण्डली में लड़कियां नहीं होती थी तो सीता, मंदोदरी , कौशल्या , कैकेयी सबका रोल एक ही लड़का अलग अलग सारी और मेक उप के साथ करता था। उसी बन्दे की सबसे ज्यादा मौज ली जाती थी। लोग तो उसको बैकस्टेज बीड़ी भी नहीं पीने देते थे। लड़के तो इतने हरामी थे की जब हनुमान जी का लंका जलाने वाला सीन आता था तो उनकी जलती हुई पूंछ खींच के भाग जाते थे। मैदान की बाउंड्री पर बैठ कर हाथ में चुरमुरा लिए ये सब देखने का जो अनुभव था वो अभी भी इस हफ्ते किसी दिन एक्स्ट्रा ड्यूटी करते हुए याद आ जाता है । खैर....
षष्ठी के दिन मूर्ति स्थापना के बाद हर दिन दुर्गा पूजा पंडाल में कुछ ना कुछ इवेंट होते ही रहता था। मेरा फेवरेट था आरती कम्पटीशन जिसमे लड़के लड़कियां जलती हुई आरती के साथ मूर्ति के सामने डांस करते है। कुछ लोग तो इतना खतरनाक डांस करते थे की माँ दुर्गा की नज़र भी महिषासुर से हट कर उन पर चली जाती थी। दुर्गा पूजा का एक अलग ही संगीत होता है जो धाक (शायद यही नाम था ) नामक यन्त्र से उत्पन्न होता है। यह ज्यादातर एक ही रिदम में बजाया जाता है पर आप उस से कभी भी बोर नहीं हो सकते।
पंडाल में घूमना अपनी क्रश को लेजिटिमट तरीके से लाइन मारने की भी जगह हो जाती थी। और जिनकी क्रश नहीं होती थी वो सजी धजी बंगाली लड़कियों को देख कर ही खुश हो जाते थे। बंगाली लड़कियों का उस हफ्ते अलग रूप नज़र आता है, जैसे की किसी प्लास्टिक सर्जन ने डिस्काउंट दे कर सबको ही अत्यंत खूबसूरत बना दिया हो। खैर.....
दिन बीतते बीतते दशमी का दिन आता है जो की बिटरस्वीट अनुभव की परिकाष्ठा वाला दिन है। एक तरफ रावण के जलने का रोमांच होता था , वही दूसरे तरफ माँ दुर्गा के विसर्जन का गम। राम लीला मैदान को शाम से ही लोग भरना चालू कर देते थे। राम रावण का आखिरी युद्ध चालू हो जाता था पर वो तब तक अंत नहीं होता था जब तक चीफ गेस्ट ना आ जाए। चीफ गेस्ट के आते ही विभीषण सक्रिय हो जाता था और चुपके से राम जी के कान में रावण की मृत्यु का राज बता देता था और उसके बाद राम जी तीर मारते हैं जिसे रावण खुद ही अपनी नाभि में घुसा लेता था। इस हास्यास्पद घटना क्रम के बाद कोई अचानक से रावण के पुतले में आग लगा देता था और दशेहरा का आनंद भी उस रावण के साथ ही भष्म हो जाता था।
वो कहते हैं ना कि उस समय की बात ही कुछ और थी,
सही कहते हैं।
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